Monday, March 16, 2015

योगवाशिष्ठ कै कथा

यक बेर कै बात ही सुतीक्ष्ण नामक यक बिप्र रहे। उनके मन मा यक दिन ई संका भै कि मोक्ष पावै कै साधन का है? मोक्ष केस मिले- करम के से कि ज्ञान के से कि दूनौं से? अपने यहि संशय के निवृत्ति ताईं वै अगस्ति मुनि के आश्रम पै गये आउर उनसे मोक्ष मिलै’क उपाय पूछिन। अगस्ति उत्तर दिहिन- मोक्ष न केवल करम से मिलत है न ही ज्ञान से। चिरई अपने केवल यक पखना से नाहीं उड़ पावत। जौन मेर वहका आकास मा उड़ै ताईं दूनौं पखना हुअब आवश्यक है, वही मेर मोक्ष पावै ताईं करम आउर ज्ञान दूनौं आवश्यक है। ई दूनौं मोक्षप्राप्ति कै साधन हैं। यहके बिसय मा हम तुँहका यक इतिहासिक बात सुनाइत है, सुनौ- अग्निवेश्य कै वेद-वेदांग जानै वाला पुत्र कारुण गुरु के घर से सब तरह कै बिद्या पढ़िकै घर लौटा। घर लौटकै वहका यही मेर कै शंका बहुत व्यथित किहिस आउर उ आपन सब नियम-धरम कै काम छोड़िकै मौन रहै लाग। कौनौं काम मा वहकै मन नाही लागत रहा। अपने पुत्र कै ई दशा देखिकै अग्निवेश्य बहुत चिन्तित भये आउर पूछिन कि- पुत्र! तू सब काम-धाम छोड़ैकै यहि मेर काहे बैठा हौं। कौनौ चिन्ता ही का? यहि मेर बिना काम किहे तुँहका सिद्धि केस मिली? पिता के यहि मेर पूछै पर कारुण कहिन- पिताजी! हमरे मन मा बहुत बड़ा शंका उठी है। कुछ शास्त्र तौ परमार्थ पावै’क लिये करम करै’क उपदेस देत हैं  आउर कुछ शास्त्र करमत्याग कै बात करत हैं। हमरे समझ मा ई नाईं आवत कि कौन मार्ग उचित है जेहका हम अपनायी? तू यहि बिसय मा हमका उचित उपदेस दियउ। अपने पुत्र कै ई शंका सुनिकै अग्निवेश्य कहिन कि यह पै हम तुँहका यक पुरान कथा सुनाइत है। वहि कथा का सुनिकै तोहार सब शंका दूरि ह्वै जाई- बहुत पहिले यक समय सुरुचि नाव कै यक सुन्दर अप्सरा हिमालय के चोटी पर बैठ प्रकृति कै शोभा निहारत रही। अतने मा उ देखिस कि इन्द्र कै कौनौ दूत अन्तरिछ मा जात है। वहका जात देखिकै उ वहका अपने लगे बलाइस आउर पूछिस कि- हे दूत तू कहाँ से आवत हौं आउर कहाँ जइहौ? यहि पै दूत उत्तर दिहिस कि- हे सुभगे! पृथ्वीलोक पै अरिष्टनेमि नाव कै यक राजा रहत रहे। वै अपने पुत्र का सब राजपाट सौंप कै गन्धमादन नाव के यक परबत पर अपने भविष्य के कल्याण ताईं घोर तप करब शुरू किहिन रहा। हमरे स्वामी इन्द्र का जब ई बात पता लागि तब वै अपने दूतन का पठइ कै बहुत आदर आउर सत्कार से उनका अपने हियाँ बलवाय लिहिन आउर उनका स्वर्गलोक मा रहै’क लिये न्यौतिन।  उनके न्यौता पर राजा इन्द्र से प्रार्थना किहिन आउर पूछिन कि- हियाँ स्वर्ग मा रहै से पहिले हम ई जाना चाहित है कि स्वर्ग मा रहै’क गुण का-का है आउर दोस का-का है? इन्द्र कहिन कि- राजन्! स्वर्ग मा नानाप्रकार कै भोग हैं लकिन उ सब अपने सुभ करम के अनुसार ही मिलत हैं। उत्तम करम करै वाले का उत्तम भोग, मध्यम करम करै वाले का मध्यम भोग आउर अधम करम करै वाले का अधम भोग। जे सभै ऊँच  श्रेणी कै हैं उनका नीच श्रेणी वालेन के प्रति अभिमान, नीच श्रेणी वालेन का उँच के प्रति इरखा आउर बराबर श्रेणी वालेन मा एकदूजे से प्रतिस्पर्धा, इ सब स्वर्ग मा होत रहत है। जब पहिले जौन पुण्य कीन गा है वहकै फल समाप्त ह्वै जात है तौ फिर से इनका सबका जे स्वर्ग मा रहत है मृत्युलोक मा लौटै’क परत है औ जनम-मरण के चक्र मा फिरसे पड़ै’क परत है। इ सब बाति सुनि कै राजा इन्द्र से कहिन कि- देव! यहि मेर कै स्वर्ग मा रहै’क हमार तनिकौ इच्छा नाही ही। कृपा करिकै आप हमका हमरे गन्धमादन परबत पर पहुँचाय दियउ। हुवैं हम तपस्या करिकै मन से सब मेर कै भोग कै इच्छा समाप्त करिकै अपने यहि सरीर कै त्याग करब। इ बृतान्त सुनाय कै दूत आगे बताइस कि- हे देवी! राजा कै यस बात सुनै’क बाद इन्द्र हमसे कहिन कि- हे दत! यै राजर्षि जे तत्त्वज्ञान कै अधिकारी हैं, इनका तू महर्षि बाल्मीकि के आश्रम मा लै जाव। वै इनका तत्त्वज्ञान कै उपदेस देहैं। जौन सुनिकै इनका मोक्ष मिलि जाई। दूत कहिस हे सुरुचि! देवराज इन्द्र कै यस आज्ञा पउतै हम राजा अरिष्टनेमि का ऋषि बाल्मीकि के आश्रम मा लै गयेन। हुँवा पहुँचि कै राजा ऋषि बाल्मीकि के गोड़े पर ठाढ़ै गिरि पड़े आउर उनसे पूछिन कि- हे ऋषी! हमका उ मार्ग बतावौ जेहसे हम संसार के यहि बन्धन आउर दुःख से मुक्त होइ जाई। ऋषि कहिन- हे राजन! हम तुँहका मोक्ष कै उ उपदेस सुनैबै जौन कौनौ समय ऋषि बसिष्ठ अपने शिष्य रामचन्द्र का सुनाइन रहा। वहका सुनिकै तुँहै आत्मबोध होये आउर तू जीवनमुक्त ह्वै जैहौ। हम यहै मोक्षोपाय नामक बसिष्ठ-राम-संवाद का बहत दिन जुहावा है। यहिकै रचना करिकै सबसे पहिले हम यहका अपने बिनीत शिष्य भरद्वाज का सुनायेन रहा। भरद्वाज यहका सुनिकै बहुत प्रसन्न भये रहा आउर ब्रह्मा जी के लगे जाइ कै यहका सुनाइन रहा। यहका सुनिकै ब्रह्मा जी बहुत प्रसन्न होइकै आशीर्वाद दिहिन रहा कि- श्रीबाल्मीकि जी संसार के उपकार ताईं यस उत्तम ग्रन्थ कै रचना किहिन ही जेहका कान से सुनै मात्र से ही मनई भवसागर से सहजरूप से पार ह्वै जाई। बाल्मीकि कहिन-राजन्! आज वहै ग्रन्थ हम त्वहरे ताईं तुँहै सुनाइत है। बाल्मीकि के मुँह से सुनी उ सब कथा दूत सुरुचि का सुनाइस। वहै कथा योगवाशिष्ठ मा वर्णित है। 

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